“जहां प्रेम है, वहां भगवान स्वयं रूप बदलकर आ जाते हैं।”
यह कथा उस अद्भुत अवतार की है जो भगवान विष्णु ने जगन्नाथ जी के रूप में लिया। यह कहानी केवल एक मूर्ति की नहीं, बल्कि भक्ति, समर्पण और रहस्य की एक यात्रा है।
एक समय की बात है जब धरती पर भक्ति का प्रकाश फैलाने के लिए भगवान विष्णु ने एक ऐसा रूप धारण किया, जो आज भी लोगों को आश्चर्य में डाल देता है – बिना हाथ-पैर की आकृति, गोल नेत्र, और श्याम-सफेद रंग के शरीर वाला जगन्नाथ स्वरूप।
“भगवान विष्णु का रहस्य और एक राजा का सपना”
बहुत समय पहले की बात है, उड़ीसा में इंद्रद्युम्न नामक एक राजा राज्य करते थे। वे भगवान श्रीहरि विष्णु के परम भक्त थे और हर समय श्री हरि के दर्शन की लालसा में रहते थे। एक दिन उन्होंने एक दिव्य स्वप्न देखा – जिसमें उन्हें बताया गया कि नीलांचल पर्वत (वर्तमान पुरी) पर एक रहस्यमयी देव मूर्ति समुद्र की लहरों में तैर रही है, जिसे ढूंढकर स्थापित करना है।
राजा इंद्रद्युम्न तुरंत अपने सैनिकों और पुजारियों के साथ उस मूर्ति की खोज में निकल पड़े। समुद्र किनारे एक विशाल काष्ठ खंड (लकड़ी का टुकड़ा मिला), जिसे देख राजा समझ गए कि यह कोई साधारण लकड़ी काटुकड़ा नहीं, अर्थात दिव्य मूर्ति का रूप है। और वह उसे लेकर अपने महल वापस आ गए।
अब इस मूर्ति में भगवान को तराशने की बारी थी परंतु कोई भी समझ नहीं पाया कि यह कार्य कैसे संभव होगा। तभी एक रहस्यमय वृद्ध मूर्तिकार राजा के दरबार में आया। उसने कहा, “मैं इसे बना सकता हूँ, पर एक शर्त है – जब तक मैं कार्य कर रहा होऊँ, कोई भी मुझे नहीं देखेगा और कमरे का दरवाजा नहीं खोलेगा, अन्यथा मैं कार्य अधूरा छोड़ दूँगा।”
राजा ने वचन दिया और मूर्तिकार एक बंद कमरे में कार्य करने लगा। दिन बीतते गए, लेकिन भीतर से कोई आवाज नहीं आती थी। रानी को शंका हुई कि कहीं वह मूर्तिकार मर तो नहीं गया! रानी ने चिंतित होकर दरवाज़ा खोल दिया।
और जैसे ही दरवाज़ा खुला – मूर्तिकार गायब हो गया।
कमरे में तीन मूर्तियाँ थीं – भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र, और बहन देवी सुभद्रा की। ये मूर्तियाँ अधूरी थीं – हाथ-पैर नहीं थे, चेहरों पर केवल विशाल नेत्र और सुंदर मुस्कान।
राजा दुखी हुए कि उन्होंने वचन तोड़ा, लेकिन तभी आकाशवाणी हुई –
“हे राजा, यही मेरी लीला है। मैं पूर्ण हूँ, फिर भी अधूरा। मेरी यह मूर्ति भक्ति का प्रतीक है, न कि सौंदर्य का। जो मुझे प्रेम से देखेगा, उसे मैं साक्षात दर्शन दूँगा।”
राजा ने उसी स्थान पर भव्य मंदिर का निर्माण करवाया – जिसे आज हम पुरी जगन्नाथ मंदिर के रूप में जानते हैं। यहां हर वर्ष भव्य रथ यात्रा होती है – जिसमें तीन विशाल रथों में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा विराजते हैं, और लाखों भक्त उन्हें खींचते हैं।
यह एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां भगवान, भाई और बहन एक साथ विराजमान हैं और पूजे जाते हैं।