संत सूरदास जन्म से अंधे थे। और भगवान श्री कृष्णा में अपार श्रद्धा रखते थे और भगवान श्रीकृष्ण के सबसे प्रिय भक्तों में से वह एक थे। वह दिन रात भगवान के नाम का जाप करते और हर पल कान्हा के नाम में मग्न रहते थे। लोग उनसे कहते कि तू हर पल किसका नाम जपता रहता है?
सूरदास जी बोले मैं भगवान कृष्णा का नाम जपता हूं। लोगों ने कहा तू इतना ही भगवान को मानता है तो तेरे नेत्रों की दृष्टि क्यों नहीं आ जाती। परंतु सूरदास जी इससे निराश नहीं हुए और शांत रहे और वहां से मुस्कुरा कर चले गए। सूरदास दास जी पर इन सब बातों का कोई असर नहीं होता था और वह नित्य प्रतिदिन वैसे ही भगवान श्री कृष्णा के ध्यान में लगे रहते थे।
कहते हैं, एक दिन श्रीकृष्ण सूरदास जी की भक्ति से प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हुए और बोले: “सूर, मैं तुझे नेत्र दे सकता हूँ, तू दुनिया देख ले।”
इस पर सूरदास ने कहा: “प्रभु, जब आपकी दिव्य छवि मेरे हृदय में समायी हुई है, जब हर सांस में आपका नाम गूंजता है, जब मेरे रोम-रोम में आपके प्रेम की तरंगें बह रही हैं, तब मुझे इस संसार को देखने की कोई आवश्यकता नहीं है। ये आँखें चाहे इस भौतिक जगत को न देख सकें, पर मेरी अंतरात्मा हर पल बस आपके स्वरूप को अनुभव कर रही है। आपने जो प्रेम और करुणा मेरे जीवन में बरसाई है, वह संसार की किसी भी सुंदरता से कहीं अधिक दिव्य है। मुझे किसी फूल, नदी या पहाड़ को देखने की लालसा नहीं, क्योंकि मेरा अंतर्मन तो उस साक्षात उस सुंदरतम को देख रहा है, जो सबका मूल है — आप ही तो हैं मेरे दृष्टिकोण और मेरी रोशनी हें प्रभु। आपकी छवि जब अंतरात्मा में उतर जाती है, तो बाहरी दुनिया स्वतः फीकी पड़ जाती है। मैं अंधा नहीं, बल्कि सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे आपके दर्शन प्राप्त हुए।
यह सब सुनकर भगवान श्री कृष्णा मुस्कराए और बोले: “ऐसी भक्ति को मेरा प्रणाम।”