“राधा का प्रेम, कृष्ण का भाव–
जब दोनों एक हुए, तब बना ब्रह्म का स्वरूप।
ये केवल प्रेम नहीं, यह आत्मा और परमात्मा का संगम था।”
बरसाने की गलियों में राधा रानी की बचपन की हँसी गूंजती थी। वृंदावन के कण कण में कृष्ण की बांसुरी की मिठास बहती थी। लेकिन क्या ये दो आत्माएँ केवल प्रेमी थे? नहीं। यह कोई साधारण प्रेम कहानी नहीं थी, यह थी “आत्मा और परमात्मा के मिलन की कथा।”
कृष्ण जब भी वृंदावन आते, सबसे पहले राधा से मिलने जाया करते। वह भिन्न-भिन्न रूप धारण करके राधा से मिलने जाते। वे ग्वाल-बालों के संग खेलते, माखन चुराते, लेकिन राधा के दर्शन के बिना उनकी लीला अधूरी रहती।
राधा, जिनके लिए कृष्ण केवल एक नाम नहीं, उनके प्राण थे। उनके मन में कृष्ण का हर भाव, हर स्पंदन बसता था। वह हर क्षण बस श्री कृष्ण के बारे में ही सोचती रहती । लेकिन वह कृष्ण से कुछ माँगती नहीं थीं — ना साथ, ना अधिकार, ना वचन। उनका प्रेम इतना पवित्र था कि उसमें कोई अपेक्षा ही नहीं बची थी।
एक दिन राधा ने कृष्ण से पूछा – “क्या तुम मुझे कभी छोड़ दोगे कान्हा?”
कृष्ण मुस्कराए और बोले – “राधे, जिस दिन मैं तुमसे अलग हो जाऊँ, उस दिन मैं स्वयं ‘मैं’ नहीं रहूँगा।”
उनका मिलना एक शरीर का नहीं, दो हृदयों का नहीं, बल्कि दो चेतनाओं का संगम था। राधा का प्रेम पवित्र था, निश्चल था,भावमय था, त्यागमय था। उन्होंने कभी कृष्ण को पाने की इच्छा नहीं की, क्योंकि वे जानती थीं कि जो प्रेम को पाना चाहे, वह प्रेम का मूल्य खो देता है।
यह मिलन दर्शाता है कि सच्चा प्रेम पाने में नहीं, पूर्ण समर्पण में है। प्रेम वह है जिसमें ‘मैं’ का कोई स्थान नहीं हो और केवल ‘तू’ ही रह जाए। राधा का ‘मैं’ कृष्ण में समर्पित हो गया था, और कृष्ण का भाव, राधा के प्रेम में।
राधा प्रेम की पराकाष्ठा थीं और कृष्ण उस प्रेम के साक्षात् दर्पण।