🌸 लीला जो श्री कृष्णा ने भी राधा बनकर जी— चैतन्य महाप्रभु और राधा भाव 🌸
“राधा भाव को अनुभव करना सरल नहीं था, तब इसके लिए कृष्ण को भी स्वयं को खो देना पड़ा”
एक बार श्री राधा ने लीला की और श्री कृष्ण से कहा कि आप कभी मेरे जैसा प्रेम नहीं कर सकते— तो इस पर श्री कृष्ण ने मुस्कुराते हुए श्री राधा रानी से कहा— प्रिय मैं तुम्हारे प्रेम भाव को जीने के लिए धरती पर अवतार लूंगा।
चैतन्य महाप्रभु स्वयं श्रीकृष्ण का अवतार माने जाते हैं, और वे सदैव राधा भाव में डूबे रहते थे। नवद्वीप की पवित्र भूमि पर जब चैतन्य महाप्रभु कीर्तन में लीन होते थे, तो मानो पूरा वातावरण जैसे अदृश्य मधुरता से भर जाता। उनके भजन, उनकी आँखों से बहते आँसू, और उनकी देह की कंपकंपी— यह सब सामान्य नहीं था। लोग कहते थे — “यह कोई साधारण संत नहीं हैं, यह स्वयं श्रीकृष्ण हैं जो राधा का प्रेम जी रहे हैं।”
एक दिन, सैकड़ों भक्तों के बीच कीर्तन हो रहा था। महाप्रभु चैतन्य “हरि बोल” के मधुर नाम में ऐसे डूबे थे कि स्वयं के शरीर की सुध-बुध खो बैठे। और वह भूमि पर गिर पड़े… जब लोगों ने उन्हें उठाया, तो देखा कि उनकी आँखों से बहते आँसू में हल्का रक्त मिला हुआ था।
सभी भक्त अचंभित थे। डर और भक्ति दोनों की मिलीजुली भावना से वे उन्हें निहारते रहे। तभी महाप्रभु ने बहुत शांत स्वर में कहा:
“जब राधा का प्रेम कृष्ण के हृदय को स्पर्श करता है, यही होता है। देह और चेतना दोनों बिखर जाते हैं। यह आँसू नहीं… यह तो राधा का भाव है, जिसमें स्वयं कृष्ण भी खुद को खो देते हैं।”
कृष्ण ने सृष्टि को प्रेम सिखाया, पर श्री राधा ने उन्हें स्वयं प्रेम करना सिखाया। राधा का प्रेम एक समर्पण नहीं, एक अस्तित्व है। जो स्वयं ईश्वर को भी पिघला देता है। और उस भाव को जानने के लिए श्रीकृष्ण ने चैतन्य महाप्रभु का रूप धारण किया। ताकि वे राधा के हृदय की पीड़ा, उनकी तड़प, उनकी निस्वार्थ भक्ति को जी सकें— उसे अनुभव कर सके।
महाप्रभु चैतन्य की ये लीला हमें यही सिखाती है कि-
“ईश्वर को पाना कठिन नहीं, लेकिन राधा जैसा निस्वार्थ प्रेम करना— दुर्लभ है।”
जहाँ कोई चाह नहीं होती, कोई मांग नहीं होती। बस ‘तुम हो, यही पर्याप्त है’ जैसा भाव होता है।