एक समय की बात है जब वृंदावन में एक बूढ़ी विधवा महिला रहती थी। उसका कोई नहीं था, वह अकेली एक छोटी-सी कुटिया में रहती थी और जीवनभर श्रीकृष्ण का नाम जपती रहती और उन्हीं की सेवा में लगी रहती थी। हर दिन वह अपने हाथों से भोग बनाती — कभी खिचड़ी, कभी खीर, कभी माखन तो कभी हलवा — और ठाकुर जी के मंदिर में जाकर उन्हें प्रतिदिन भोग अर्पित करती।
एक दिन वह बीमार हो गई, इतनी कि बिस्तर से उठना मुश्किल हो गया। वह चाह कर भी ठाकुर जी के लिए भोग न लेकर जा सकी और वह बहुत उदास हो गई क्योंकि वह ठाकुर जी को अपना पुत्र मानती थी और उनके लिए प्रतिदिन खाना बनाती थी परंतु जब वह भोग लेकर जाने में असमर्थ रही तो निराशा से इस पर उसने रोते हुए ठाकुर जी से कहा,
“हे लल्ला, आज मैं तेरे लिए भोग नहीं बना सकी… तू नाराज़ मत होना बेटा।”
रात को उसी मंदिर मैं जहां वह विधवा मां रोज जाया करती थी उस मंदिर के पुजारी ने देखा कि श्रीकृष्ण की मूर्ति के होठों और वस्त्रों पर खिचड़ी के दाग हैं। उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ! किसने भोग लगाया? जब उन्होंने गाँव में खोजबीन की सभी आसपास के लोगों से पूछताछ की, तो बात बूढ़ी महिला तक पहुँची।
महिला ने बताया कि रात को एक छोटा बालक उसके घर आया था — साँवला रंग, पीले वस्त्र, मोरपंख… और उसने महिला से कहा उसे बहुत जोर से भूख लगी है और खाना मांगने लगा तो बूढी मां ने बालक के लिए खिचड़ी बनाई और फिर बालक ने प्यार से खाना खाया और हँसते हुए बोला,
“माँ, आज तू नहीं आई, तो मैं ही आ गया।”
जब यह बात सामने आई, तो सभी गांव के लोग हैरान रह गए। किसी को यकीन नहीं हो रहा था कि भगवान स्वयं एक वृद्धा भक्त के प्रेम और निश्चल भक्ति से इतने भावविभोर हो गए कि वे अपने धाम से चलकर स्वयं उसके घर आ गए और उसके हाथों से बना भोग ग्रहण किया। यह कोई साधारण घटना नहीं थी, बल्कि यह प्रमाण था कि सच्चे हृदय से की गई भक्ति कभी व्यर्थ नहीं जाती।