Monday, July 21, 2025
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दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

साधक सबसे पहले स्नान करके अपने शरीर को पवित्र करें। फिर, आसन की शुद्धि की प्रक्रिया पूरी करके किसी स्वच्छ और पवित्र आसन पर बैठें। साथ में पूजा की आवश्यक सामग्री, शुद्ध जल और श्री दुर्गा सप्तशती की पुस्तक रखें। पुस्तक को एक साफ और काष्ठ आदि (जैसे लकड़ी के पट्टे) पर अपने सामने स्थापित करें।

इसके बाद साधक अपने ललाट पर अपनी परंपरा या श्रद्धा के अनुसार भस्म, चंदन या रोली लगाए और शिखा बाँध लें। पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठे, और तत्त्व-शुद्धि (अंतर-शुद्धि) के लिए चार बार आचमन करें। हर बार एक-एक मंत्र का उच्चारण करें,  अब अग्रांकित चार मन्त्रों को क्रमशः पढ़े-

तत्पश्चात् प्राणायाम करके गणेश आदि देवताओं एवं गुरुजनों को प्रणाम करें, फिर

इत्यादि मन्त्र से कुशकी पवित्री (अंगूठी) धारण करके हाथ में लाल फूल, अक्षत (चावल) और जल लेकर निम्नांकित रूप से संकल्प करें-

इस प्रकार प्रतिज्ञा (संकल्प) करके देवी का ध्यान करते हुए पंचोपचार की विधि से पुस्तक की पूजा करें, योनिमुद्रा का प्रदर्शन करके भगवती को प्रणाम करें, फिर मूल नवार्णमन्त्र से पीठ आदि में आधारशक्ति की स्थापना करके उसके ऊपर पुस्तक को विराजमान करें। इसके बाद शापोद्धार करना चाहिये। इसके अनेक प्रकार हैं।

इस मन्त्र का आदि और अन्त में सात बार जप करे। यह शापोद्धार मन्त्र कहलाता है। इसके अनन्तर उत्कीलन मन्त्र का जप किया जाता है। इसका जप आदि और अन्तमें इक्कीस-इक्कीस बार होता है। यह मन्त्र इस प्रकार है-

इसके जप के पश्चात् आदि और अन्त में सात-सात बार मृतसंजीवनी विद्या का जप करना चाहिये, जो इस प्रकार है-

मारीचकल्पके अनुसार सप्तशती-शापविमोचन का मन्त्र यह है-

इस मन्त्र का आरम्भ में ही एक सौ आठ बार जाप करना चाहिये, पाठ के अन्त में नहीं। अथवा रुद्रयामल महातन्त्र के अन्तर्गत दुर्गाकल्प में कहे हुए चण्डिका-शाप-विमोचन मन्त्रों का आरम्भ में ही पाठ करना चाहिये। वे मन्त्र इस प्रकार हैं-

इस प्रकार शापोद्धार करने के अनन्तर अन्तर्मातृका-बहिर्मातृका आदि न्यास करे, फिर श्रीदेवी का ध्यान करके रहस्य में बताये अनुसार नौ कोष्ठोंवाले यन्त्र में महालक्ष्मी आदि का पूजन करे, इसके बाद छः अंगोंसहित दुर्गासप्तशती का पाठ आरम्भ किया जाता है। कवच, अर्गला, कीलक और तीनों रहस्य- ये ही सप्तशती के छः अंग माने गये हैं। इनके क्रम में भी मतभेद हैं। चिदम्बरसंहिता में पहले अर्गला फिर कीलक तथा अन्त में कवच पढ़ने का विधान है।* किंतु योगरत्नावली में पाठ का क्रम इससे भिन्न है। उसमें कवच को बीज, अर्गला को शक्ति तथा कीलक को कीलक संज्ञा दी गई है। जिस प्रकार सब मन्त्रों में पहले बीज का, फिर शक्ति का तथा अन्त में कीलक का उच्चारण होता है, उसी प्रकार यहाँ भी पहले कवचरूप बीज का, फिर अर्गलारूपा शक्ति का तथा अन्त में कीलकरूप कीलक का क्रमशः पाठ होना चाहिये।* यहाँ इसी क्रम का अनुसरण किया गया है।

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