जहां राधा हैं, वहां रस है – और जहां रस है, वहां रास है।
वो रात नहीं, एक लीला थी। जहां प्रेम ने समय को रोक दिया।
एक समय की बात है ब्रज में शरद पूर्णिमा की रात थी। चाँद अपनी पूर्णिमा की शांति और सौंदर्य के साथ चमक रहा था और यमुना धीरे-धीरे बह रही थी। वृंदावन का हर वृक्ष, पत्ता और हर कली मानो बस उसी एक संगीत की प्रतीक्षा कर रही थी — श्रीकृष्ण की बंसी की।
जैसे ही कृष्ण ने अपनी बंसी बजाई, ब्रिज में श्री राधा और हर गोपी की सांस रुक गई। वे जहां थीं, वहीँ से उस बांसुरी की धुन की ओर खिंचती चली आईं — किसी ने घर छोड़ा, किसी ने सोते बच्चों को, तो किसी ने दूध उबालते चूल्हे को… सब कुछ भूलकर वे उस बंसी की पुकार में खो गईं और अपनी सुद्ध बुद्ध को खो बैठी।

जब वे यमुना किनारे पहुँचीं, तो वहां श्री कृष्णा अपनी बांसुरी बजा रहे थे और बेहद ही सुंदर लग रहे थे— वही नीले-कमल जैसे नयन, वही मोहक मुस्कान, और वही प्रेम से भरी दृष्टि।
अब हुआ कुछ ऐसा जो समय की सीमाओं से परे था…
रास लीला प्रारंभ हुई। राधा कृष्ण ने अपनी रासलीला प्रारंभ की और श्री कृष्ण ने अपने आप को हर गोपी के साथ बाँट लिया। हर गोपी को लगा कि कृष्ण बस उनके साथ ही रास कर रहे हैं — यही श्री कृष्ण की दिव्यता थी।
रास में सिर्फ नृत्य नहीं था, वह एक आत्मिक संवाद था — आत्मा और परमात्मा के मिलन का। उस रात न कोई भूतकाल था, न भविष्य… सिर्फ “प्रेम का वर्तमान” था।
यह लीला क्यों विशेष है?
यह लीला दिखाती है कि जब प्रेम सच्चा और पवित्र हो, तो उसमें ईश्वर स्वयं प्रकट होते हैं। हर गोपी, हर भक्त को ऐसा लगता है कि भगवान सिर्फ उनके हैं — और यह सत्य भी है। क्योंकि प्रेम में कोई सीमा नहीं होती। रास लीला हमें सिखाती है कि भक्ति जब भाव से भरी हो, तब भगवान स्वयं आकर नृत्य करते हैं।